वर्णमाला का अर्थ, परिभाषा, एवं प्रकार : स्वर और व्यंजन | Hindi Varnamala Pdf

आज के इस इस लेख मे हम पढ़ने वाले है Hindi varnamala जिसे Hindi alphabet | Hindi alphabets | Hindi varnmala आदि कीवर्डस के नाम से भी पहचान सकते है।

जिस तरिके से ganit कि शुरुआत ginti से होती है ठीक उसी प्रकार हिंदी भाषा कि शुरुआत Hindi varnamala से होती है, इसलिए इस लेख के माध्यम से हम हिंदी वर्णमाला को विस्तार से पढ़ेंगे कि varn kise kahate hain, varnmala in hindi, स्वर और व्यंजन तथा इसके प्रकार तो चलिए शुरू करते है।

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Hindi Varnamala | हिंदी वर्णमाला

Hindi Varnamala
Hindi Varnamala

वर्णों के समूह को varnamala कहते हैं।
दूसरे शब्दों मे :- किसी भाषा के समस्त वर्णो के समूह को वर्णमाला कहते हैै।

प्रत्येक भाषा की अपनी वर्णमाला होती है। 
Hindi varnamala – अ, आ, क, ख, ग….. 
English alphabet- A, B, C, D, E….

Definition of Hindi alphabet :- The group of characters is called varnamala.
In other words:- The set of all the letters of a language is called alphabet.

Varn kise kahate hain:- वर्ण उस मूल ध्वनि को कहते हैं, जिसके खंड या टुकड़े नहीं किये जा सकते। जैसे- अ, ई, व, च, क, ख् इत्यादि।


वर्ण भाषा की सबसे छोटी इकाई है, इसके और खंड नहीं किये जा सकते।


उदाहरण द्वारा मूल ध्वनियों को यहाँ स्पष्ट किया जा सकता है।

‘काम’ और ‘गया’ में चार-चार मूल ध्वनियाँ हैं, जिनके खंड नहीं किये जा सकते- क + आ + म + अ = काम, ग + अ + य + आ = गया। इन्हीं अखंड मूल ध्वनियों को वर्ण कहते हैं। हर वर्ण की अपनी लिपि होती है। लिपि को वर्ण-संकेत भी कहते हैं। हिन्दी में 52 वर्ण हैं।

वर्णमाला के भेद | varnamala ke prakar

हिंदी भाषा में वर्णमाला दो प्रकार होते है।-

  1. स्वर (vowel in hindi)
  2. व्यंजन (Consonant)

अब निचे हम vowel and consonant in hindi (स्वर और व्यंजन ) को विस्तार से सीखेंगे

1.swar in hindi ( vowel in Hindi )

vowels of Hindi:- हिंदी वर्णमाला में 16 स्वर होते है। जैसे- अ आ इ ई उ ऊ ए ऐ ओ औ अं अः ऋ ॠ ऌ ॡ।

स्वर किसे कहते हैं

meaning of vowel in hindi:- वे सभी वर्ण जिनको बोलने या उच्चारण में किसी दूसरे वर्ण की सहायता की आवश्यकता नहीं होती, स्वर कहलाता है।

दूसरे शब्दों में :- वे सभी वर्ण जो स्वतंत्र रूप से बोले जाते या उच्चारण किये जाते है, स्वर कहलाते है।

इसे अंग्रेजी में vowel तथा हिंदी में स्वर कहते है।

examples vowel of hindi


Note:- इसके उच्चारण में कंठ, तालु का उपयोग होता है, जीभ, होठ का नहीं।

 

स्वर के कितने भेद होते हैं

स्वर के मुख्यतः दो भेद होते है-

  1. a. मूल स्वर
  2. b. सयुंक्त स्वर
a. मूल स्वर

मूल स्वर कुछ इस प्रकार हैं :- अ, आ, इ, ई, उ, ऊ, ए, ओ

b. संयुक्त स्वर
यह इस प्रकार हैं :-ऐ (अ +ए) और औ (अ +ओ)
मूल स्वर के भेद
  1. । ह्रस्व स्वर
  2. ।। दीर्घ स्वर
  3. ।।। प्लुत स्वर
(।) ह्रस्व स्वर

जिन स्वरों के उच्चारण में कम समय लगता है उन्हें ह्स्व स्वर कहते है।
ह्स्व स्वर चार होते है :- अ, आ, उ, ऋ।

‘ऋ’ की मात्रा (ृ) के रूप में लगाई जाती है तथा उच्चारण ‘रि’ की तरह होता है।

(।।) दीर्घ स्वर

वे स्वर जिनके उच्चारण में ह्रस्व स्वर से दोगुना समय लगता है, वे दीर्घ स्वर कहलाते हैं। 
दूसरे शब्दों में – स्वरों के उच्चारण में अधिक समय लगता है उन्हें दीर्घ स्वर कहते है।

दीर्घ स्वर सात होते है :- आ, ई, ऊ, ए, ऐ, ओ, औ।

दीर्घ स्वर दो शब्दों के योग से बनते है।


जैसे- आ =(अ +अ ) 
ई =(इ +इ ) 
ऊ =(उ +उ ) 
ए =(अ +इ )
ऐ =(अ +ए ) 
ओ =(अ +उ ) 
औ =(अ +ओ )

(।।।) प्लुत स्वर

वे स्वर जिनके उच्चारण में दीर्घ स्वर से भी अधिक समय यानी तीन मात्राओं का समय लगता है, प्लुत स्वर कहलाते हैं।
दूसरे शब्दों में :- जिस स्वर के उच्चारण में तिगुना समय लगे, उसे ‘ प्लुत स्वर ‘ कहते हैं।

इसका चिह्न (ऽ) है। इसका प्रयोग अकसर पुकारते समय किया जाता है। जैसे- सुनोऽऽ, शाऽऽम, कोऽऽम्, आदि।

Note:-हिन्दी में साधारणतः प्लुत का प्रयोग नहीं होता। वैदिक भाषा में प्लुत स्वर का प्रयोग अधिक हुआ है। इसे ‘त्रिमात्रिक’ स्वर भी कहते हैं।

2. vyanjan in hindi (Consonant in hindi)

Vyanjan kitne hote hain :- हिन्दी में व्यंजन वर्णो की संख्या 33 है।जैसे- इसे व्यवस्थित तरिके से समझाया गया हैँ।

  • क वर्ग – क , ख , ग , घ , डं
  • च वर्ग – च , छ , ज , झ , ञ
  • ट वर्ग – ट , ठ , ड , ढ , ण ,
  • त वर्ग – त , थ , द , ध , न
  • प वर्ग – प , फ , ब , भ , म
  • अंतः स्थल वर्ग – य , र , ल , व
  • उष्म वर्ग – श , ष , स , ह
  • संयुक्त वर्ग – क्ष , त्र , ज्ञ , श्र

नोट:- क्ष , त्र , ज्ञ , श्र मूलत व्यंजन नहीं है वह संयुक्त व्यंजन है।

निचे हम व्यंजन किसे कहते हैं तथा इसके प्रकार को विस्तार से पढ़ेंगे

meaning of consonant in Hindi

vyanjan kise kahate hain | व्यंजन किसे कहते हैं :- वे सभी वर्ण जिनको बोलने के लिए स्वर की सहायता लेनी पड़ती है उन्हें व्यंजन कहते है। 

दूसरे शब्दो में:- व्यंजन उन वर्णों को कहते हैं,जिनको स्वतंत्र रूप से नहीं बॉल सकते या जिनके उच्चारण में स्वर वर्णों की सहायता ली जाती है।

व्यंजन को अंग्रेजी में consonant कहते हैं।

‘क’ से विसर्ग ( : ) तक सभी वर्ण व्यंजन हैं। प्रत्येक व्यंजन के उच्चारण में ‘अ’ की ध्वनि छिपी रहती है। ‘अ’ के बिना व्यंजन का उच्चारण सम्भव नहीं।

जैसे- ख्+अ=ख, प्+अ =प। व्यंजन वह ध्वनि है, जिसके उच्चारण में भीतर से आती हुई वायु मुख में कहीं-न-कहीं, किसी-न-किसी रूप में, बाधित होती है। स्वर वर्ण स्वतंत्र और व्यंजन वर्ण स्वर पर आश्रित है।

व्यंजन के प्रकार | vyanjan ke prakar in hindi

व्यंजनों के तीन प्रकार होते है-

  1. (।)स्पर्श व्यंजन
  2. (।।)अन्तःस्थ व्यंजन 
  3. (।।।)उष्म व्यंजन
(।) स्पर्श व्यंजन | sparsh vyanjan

sparsh vyanjan kise kahate hain :- स्पर्श का अर्थ होता है -छूना। जिन व्यंजनों का उच्चारण करते समय जीभ मुँह के किसी भाग जैसे- कण्ठ, तालु, मूर्धा, दाँत, अथवा होठ का स्पर्श करती है, उन्हें स्पर्श व्यंजन कहते है।


सरल शब्दो में- ये कण्ठ, तालु, मूर्द्धा, दन्त और ओष्ठ स्थानों के स्पर्श से बोले जाते हैं। इसलिए इन्हें स्पर्श व्यंजन कहते हैं।
इन्हें हम ‘वर्गीय व्यंजन’ भी कहते है; क्योंकि ये उच्चारण-स्थान की अलग-अलग एकता लिए हुए वर्गों में विभक्त हैं।

sparsh vyanjan ki sankhya 25 होती है जो निचे समझायें गये हैं।

  • क वर्ग ( क ख ग घ ङ):-  ये कण्ठ का स्पर्श करते है।
  • च वर्ग (च छ ज झ ञ) :- ये तालु का स्पर्श करते है।
  • ट वर्ग (ट ठ ड ढ ण [ड़, ढ़] ):- ये मूर्धा का स्पर्श करते है।
  • त वर्ग (त थ द ध न):- ये दाँतो का स्पर्श करते है।
  • प वर्ग ( प फ ब भ म):- ये होठों का स्पर्श करते है।
(।।) अन्तःस्थ व्यंजन :- 

‘अन्तः’ का अर्थ होता है- ‘भीतर’। उच्चारण के समय जो व्यंजन मुँह के भीतर ही रहे उन्हें अन्तःस्थ व्यंजन कहते है।

अन्तः = मध्य/बीच, स्थ = स्थित। इन व्यंजनों का उच्चारण स्वर तथा व्यंजन के मध्य का-सा होता है। उच्चारण के समय जिह्वा मुख के किसी भाग को स्पर्श नहीं करती।
ये व्यंजन चार होते है- य, र, ल, व।

इनका उच्चारण जीभ, तालु, दाँत और ओठों के परस्पर सटाने से होता है, किन्तु कहीं भी पूर्ण स्पर्श नहीं होता। अतः ये चारों अन्तःस्थ व्यंजन ‘अर्द्धस्वर’ कहलाते हैं।

(।।।) उष्म व्यंजन :- 

उष्म का अर्थ होता है- गर्म। जिन वर्णो के उच्चारण के समय हवा मुँह के विभिन्न भागों से टकराये और साँस में गर्मी पैदा कर दे, उन्हें उष्म व्यंजन कहते है।

ऊष्म = गर्म। इन व्यंजनों के उच्चारण के समय वायु मुख से रगड़ खाकर ऊष्मा पैदा करती है यानी उच्चारण के समय मुख से गर्म हवा निकलती है। 
उष्म व्यंजनों का उच्चारण एक प्रकार की रगड़ या घर्षण से उत्पत्र उष्म वायु से होता हैं।
ये भी चार व्यंजन होते है- श, ष, स, ह।

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उच्चारण स्थान के आधार पर व्यंजनों का वर्गीकरण

व्यंजनों का उच्चारण करते समय हवा मुख के अलग-अलग भागों से टकराती है। उच्चारण के अंगों के आधार पर व्यंजनों का वर्गीकरण इस प्रकार है :

(i) कंठ्य (गले से) – क, ख, ग, घ, ङ

(ii) तालव्य (कठोर तालु से) – च, छ, ज, झ, ञ, य, श

(iii) मूर्धन्य (कठोर तालु के अगले भाग से) – ट, ठ, ड, ढ, ण, ड़, ढ़, ष

(iv) दंत्य (दाँतों से) – त, थ, द, ध, न

(v) वर्त्सय (दाँतों के मूल से) – स, ज, र, ल

(vi) ओष्ठय (दोनों होंठों से) – प, फ, ब, भ, म

(vii) दंतौष्ठय (निचले होंठ व ऊपरी दाँतों से) – व, फ

(viii) स्वर यंत्र से – ह

श्वास (प्राण-वायु) की मात्रा के आधार पर वर्ण-भेद

उच्चारण में वायुप्रक्षेप की दृष्टि से व्यंजनों के दो भेद हैं-

(1) अल्पप्राण (2) महाप्राण

(1) अल्पप्राण :-

जिनके उच्चारण में श्वास पुरव से अल्प मात्रा में निकले और जिनमें ‘हकार’-जैसी ध्वनि नहीं होती, उन्हें अल्पप्राण कहते हैं।
सरल शब्दों में- जिन वर्णों के उच्चारण में वायु की मात्रा कम होती है, वे अल्पप्राण कहलाते हैं।

प्रत्येक वर्ग का पहला, तीसरा और पाँचवाँ वर्ण अल्पप्राण व्यंजन हैं।
जैसे- क, ग, ङ; ज, ञ; ट, ड, ण; त, द, न; प, ब, म,। 
अन्तःस्थ (य, र, ल, व ) भी अल्पप्राण ही हैं।

(2) महाप्राण:-

जिनके उच्चारण में ‘हकार’-जैसी ध्वनि विशेषरूप से रहती है और श्वास अधिक मात्रा में निकलती हैं। उन्हें महाप्राण कहते हैं।
सरल शब्दों में- जिन वर्णों के उच्चारण में वायु की मात्रा अधिक होती है, वे महाप्राण कहलाते हैं।

प्रत्येक वर्ग का दूसरा और चौथा वर्ण तथा समस्त ऊष्म वर्ण महाप्राण हैं। 
जैसे- ख, घ; छ, झ; ठ, ढ; थ, ध; फ, भ और श, ष, स, ह। 
संक्षेप में अल्पप्राण वर्णों की अपेक्षा महाप्राणों में प्राणवायु का उपयोग अधिक श्रमपूर्वक करना पड़ता हैं।

संयुक्त व्यंजन | sanyukt vyanjan

sanyukt vyanjan kise kahate hain :- जो व्यंजन दो या दो से अधिक व्यंजनों के मेल से बनते हैं, वे संयुक्त व्यंजन कहलाते हैं।

sanyukt vyanjan kitne hote hain:- ये संख्या में चार हैं :

sanyukt vyanjan wale shabd

1. क्ष = क् + ष + अ = क्ष (रक्षक, भक्षक, क्षोभ, क्षय)

2. त्र = त् + र् + अ = त्र (पत्रिका, त्राण, सर्वत्र, त्रिकोण)

3. ज्ञ = ज् + ञ + अ = ज्ञ (सर्वज्ञ, ज्ञाता, विज्ञान, विज्ञापन)

4. श्र = श् + र् + अ = श्र (श्रीमती, श्रम, परिश्रम, श्रवण)

संयुक्त व्यंजन में पहला व्यंजन स्वर रहित तथा दूसरा व्यंजन स्वर सहित होता है।

द्वित्व व्यंजन :-

जब एक व्यंजन का अपने समरूप व्यंजन से मेल होता है, तब वह द्वित्व व्यंजन कहलाता हैं।

जैसे- क् + क = पक्का 
च् + च = कच्चा 
म् + म = चम्मच 
त् + त = पत्ता

द्वित्व व्यंजन में भी पहला व्यंजन स्वर रहित तथा दूसरा व्यंजन स्वर सहित होता है।

संयुक्ताक्षर व्यंजन :-

जब एक स्वर रहित व्यंजन अन्य स्वर सहित व्यंजन से मिलता है, तब वह संयुक्ताक्षर कहलाता हैं।

जैसे- क् + त = क्त = संयुक्त 
स् + थ = स्थ = स्थान 
स् + व = स्व = स्वाद 
द् + ध = द्ध = शुद्ध

यहाँ दो अलग-अलग व्यंजन मिलकर कोई नया व्यंजन नहीं बनाते।

घोष व्यंजन:-

नाद की दृष्टि से जिन व्यंजनवर्णों के उच्चारण में स्वरतन्त्रियाँ झंकृत होती हैं, वे घोष व्यंजन कहलाते हैं।

अघोष व्यंजन:-

नाद की दृष्टि से जिन व्यंजनवर्णों के उच्चारण में स्वरतन्त्रियाँ झंकृत नहीं होती हैं, वे अघोष कहलाते हैं।

घोष’ में केवल नाद का उपयोग होता हैं, जबकि ‘अघोष’ में केवल श्र्वास का। उदाहरण के लिए-अघोष वर्ण- क, ख, च, छ, ट, ठ, त, थ, प, फ, श, ष, स। घोष वर्ण- प्रत्येक वर्ग का तीसरा, चौथा और पाँचवाँ वर्ण, सारे स्वरवर्ण, य, र, ल, व और ह।

हल्

हल्- व्यंजनों के नीचे जब एक तिरछी रेखा लगाई जाय, तब उसे हल् कहते हैं। ‘हल्’ लगाने का अर्थ है कि व्यंजन में स्वरवर्ण का बिलकुल अभाव है या व्यंजन आधा हैं।जैसे- ‘क’ व्यंजनवर्ण हैं, इसमें ‘अ’ स्वरवर्ण की ध्वनि छिपी हैं।यदि हम इस ध्वनि को बिलकुल अलग कर देना चाहें, तो ‘क’ में हलन्त या हल् चिह्न लगाना आवश्यक होगा। ऐसी स्थिति में इसके रूप इस प्रकार होंगे- क्, ख्, ग्, च् ।

विसर्ग( ः)-

अनुस्वार की तरह विसर्ग भी स्वर के बाद आता है। यह व्यंजन है और इसका उच्चारण ‘ह’ की तरह होता है। संस्कृत में इसका काफी व्यवहार है। हिन्दी में अब इसका अभाव होता जा रहा है; किन्तु तत्सम शब्दों के प्रयोग में इसका आज भी उपयोग होता है। जैसे- मनःकामना, पयःपान, अतः, स्वतः, दुःख इत्यादि।

वर्णो कि मात्रा | Hindi matra

मात्रा किसे कहते हैं:- व्यंजन वर्णों के उच्चारण में जिन स्वरमूलक चिह्नों का व्यवहार होता है, उन्हें ‘मात्राएँ‘ कहते हैं।


दूसरे शब्दो में- स्वरों के व्यंजन में मिलने के इन रूपों को भी ‘मात्रा’ कहते हैं, क्योंकि मात्राएँ तो स्वरों की होती हैं।


ये मात्राएँ दस है; जैसे- ा े, ै ो ू इत्यादि। ये मात्राएँ केवल व्यंजनों में लगती हैं; जैसे- का, कि, की, कु, कू, कृ, के, कै, को, कौ इत्यादि।

स्वर वर्णों की ही हस्व-दीर्घ (छंद में लघु-गुरु) मात्राएँ होती हैं, जो व्यंजनों में लगने पर उनकी मात्राएँ हो जाती हैं। हाँ, व्यंजनों में लगने पर स्वर उपयुक्त दस रूपों के हो जाते हैं।

 

हिन्दी के नये वर्ण:

हिन्दी वर्णमाला में पाँच नये व्यंजन- क्ष, त्र, ज्ञ, ड़ और ढ़ – जोड़े गये हैं। किन्तु, इनमें प्रथम तीन स्वतंत्र न होकर संयुक्त व्यंजन हैं, जिनका खण्ड किया जा सकता हैं। जैसे- क्+ष =क्ष; त्+र=त्र; ज्+ञ=ज्ञ।

अतः क्ष, त्र और ज्ञ की गिनती स्वतंत्र वर्णों में नहीं होती। ड और ढ के नीचे बिन्दु लगाकर दो नये अक्षर ड़ और ढ़ बनाये गये हैं। ये संयुक्त व्यंजन हैं।

यहाँ ड़-ढ़ में ‘र’ की ध्वनि मिली हैं। इनका उच्चारण साधारणतया मूर्द्धा से होता हैं। किन्तु कभी-कभी जीभ का अगला भाग उलटकर मूर्द्धा में लगाने से भी वे उच्चरित होते हैं।

हिन्दी में अरबी-फारसी की ध्वनियों को भी अपनाने की चेष्टा हैं। व्यंजनों के नीचे बिन्दु लगाकर इन नयी विदेशी ध्वनियों को बनाये रखने की चेष्टा की गयी हैं। जैसे- कलम, खैर, जरूरत। किन्तु हिन्दी के विद्वानों (पं० किशोरीदास वाजपेयी, पराड़करजी, टण्डनजी), काशी नागरी प्रचारिणी सभा और हिन्दी साहित्य सम्मेलन को यह स्वीकार नहीं हैं। इनका कहना है कि फारसी-अरबी से आये शब्दों के नीचे बिन्दी लगाये बिना इन शब्दों को अपनी भाषा की प्रकृति के अनुरूप लिखा जाना चाहिए। बँगला और मराठी में भी ऐसा ही होता हैं।

वर्णों का उच्चारण

कोई भी वर्ण मुँह के भित्र-भित्र भागों से बोला जाता हैं। इन्हें उच्चारणस्थान कहते हैं।
मुख के छह भाग हैं- कण्ठ, तालु, मूर्द्धा, दाँत, ओठ और नाक। हिन्दी के सभी वर्ण इन्हीं से अनुशासित और उच्चरित होते हैं। चूँकि उच्चारणस्थान भित्र हैं, इसलिए वर्णों की निम्नलिखित श्रेणियाँ बन गई हैं-

कण्ठ्य- कण्ठ और निचली जीभ के स्पर्श से बोले जानेवाले वर्ण- अ, आ, कवर्ग, ह और विसर्ग। 
तालव्य- तालु और जीभ के स्पर्श से बोले जानेवाले वर्ण- इ, ई, चवर्ग, य और श। 
मूर्द्धन्य- मूर्द्धा और जीभ के स्पर्शवाले वर्ण- टवर्ग, र, ष। 
दन्त्य- दाँत और जीभ के स्पर्श से बोले जानेवाले वर्ण- तवर्ग, ल, स।
ओष्ठ्य- दोनों ओठों के स्पर्श से बोले जानेवाले वर्ण- उ, ऊ, पवर्ग। 
कण्ठतालव्य- कण्ठ और तालु में जीभ के स्पर्श से बोले जानेवाले वर्ण- ए,ऐ। 
कण्ठोष्ठय- कण्ठ द्वारा जीभ और ओठों के कुछ स्पर्श से बोले जानेवाले वर्ण- ओ और औ। 
दन्तोष्ठय- दाँत से जीभ और ओठों के कुछ योग से बोला जानेवाला वर्ण- व।

स्वरवर्णो का उच्चारण

‘अ’ का उच्चारण- यह कण्ठ्य ध्वनि हैं। इसमें व्यंजन मिला रहता हैं। जैसे- क्+अ=क। जब यह किसी व्यंजन में नहीं रहता, तब उस व्यंजन के नीचे हल् का चिह्न लगा दिया जाता हैं।
हिन्दी के प्रत्येक शब्द के अन्तिम ‘अ’ लगे वर्ण का उच्चारण हलन्त-सा होता हैं। जैसे- नमक्, रात्, दिन्, मन्, रूप्, पुस्तक्, किस्मत् इत्यादि ।

इसके अतिरिक्त, यदि अकारान्त शब्द का अन्तिम वर्ण संयुक्त हो, तो अन्त्य ‘अ’ का उच्चारण पूरा होता हैं। जैसे- सत्य, ब्रह्म, खण्ड, धर्म इत्यादि।

इतना ही नहीं, यदि इ, ई या ऊ के बाद ‘य’ आए, तो अन्त्य ‘अ’ का उच्चारण पूरा होता हैं। जैसे- प्रिय, आत्मीय, राजसूय आदि।

‘ऐ’ और ‘औ’ का उच्चारण-‘ऐ’ का उच्चारण कण्ठ और तालु से और ‘औ’ का उच्चारण कण्ठ और ओठ के स्पर्श से होता हैं। संस्कृत की अपेक्षा हिन्दी में इनका उच्चारण भित्र होता हैं। जहाँ संस्कृत में ‘ऐ’ का उच्चारण ‘अइ’ और ‘औ’ का उच्चारण ‘अउ’ की तरह होता हैं, वहाँ हिन्दी में इनका उच्चारण क्रमशः ‘अय’ और ‘अव’ के समान होता हैं। अतएव, इन दो स्वरों की ध्वनियाँ संस्कृत से भित्र हैं। जैसे-

संस्कृत मेंहिन्दी में
श्अइल- शैल (अइ)ऐसा- अयसा (अय)
क्अउतुक- कौतुक (अउ)कौन-क्अवन (अव)
व्यंजनों का उच्चारण

‘व’ और ‘ब’ का उच्चारण-‘व’ का उच्चारणस्थान दन्तोष्ठ हैं, अर्थात दाँत और ओठ के संयोग से ‘व’ का उच्चारण होता है और ‘ब’ का उच्चारण दो ओठों के मेल से होता हैं। हिन्दी में इनके उच्चारण और लिखावट पर पूरा ध्यान नहीं दिया जाता। नतीजा यह होता हैं कि लिखने और बोलने में भद्दी भूलें हो जाया करती हैं। ‘वेद’ को ‘बेद’ और ‘वायु’ को ‘बायु’ कहना भद्दा लगता हैं।

संस्कृत में ‘ब’ का प्रयोग बहुत कम होता हैं, हिन्दी में बहुत अधिक। यही कारण है कि संस्कृत के तत्सम शब्दों में प्रयुक्त ‘व’ वर्ण को हिन्दी में ‘ब’ लिख दिया जाता हैं। बात यह है कि हिन्दीभाषी बोलचाल में भी ‘व’ और ‘ब’ का उच्चारण एक ही तरह करते हैं। इसलिए लिखने में भूल हो जाया करती हैं। इसके फलस्वरूप शब्दों का अशुद्ध प्रयोग हो जाता हैं। इससे अर्थ का अनर्थ भी होता हैं। कुछ उदाहरण इस प्रकार हैं-

(i) वास- रहने का स्थान, निवास। बास- सुगन्ध, गुजर। (ii) वंशी- मुरली। बंशी- मछली फँसाने का यन्त्र। 
(iii) वेग- गति। बेग- थैला (अँगरेजी), कपड़ा (अरबी), तुर्की की एक पदवी। 
(iv) वाद- मत। बाद- उपरान्त, पश्रात। 
(v) वाह्य- वहन करने (ढोय) योग्य। बाह्य- बाहरी।

सामान्यतः हिन्दी की प्रवृत्ति ‘ब’ लिखने की ओर हैं। यही कारण है कि हिन्दी शब्दकोशों में एक ही शब्द के दोनों रूप दिये गये हैं। बँगला में तो एक ही ‘ब’ (व) है, ‘व’ नहीं। लेकिन, हिन्दी में यह स्थिति नहीं हैं। यहाँ तो ‘वहन’ और ‘बहन’ का अन्तर बतलाने के लिए ‘व’ और ‘ब’ के अस्तित्व को बनाये रखने की आवश्यकता हैं।

‘ड़’ और ‘ढ़’ का उच्चारण-

हिन्दी वर्णमाला के ये दो नये वर्ण हैं, जिनका संस्कृत में अभाव हैं। हिन्दी में ‘ड’ और ‘ढ’ के नीचे बिन्दु लगाने से इनकी रचना हुई हैं। वास्तव में ये वैदिक वर्णों क और क्ह के विकसित रूप हैं। इनका प्रयोग शब्द के मध्य या अन्त में होता हैं। इनका उच्चारण करते समय जीभ झटके से ऊपर जाती है, इन्हें उश्रिप्प (ऊपर फेंका हुआ) व्यंजन कहते हैं।
जैसे- सड़क, हाड़, गाड़ी, पकड़ना, चढ़ाना, गढ़।

श-ष-स का उच्चारण-

ये तीनों उष्म व्यंजन हैं, क्योंकि इन्हें बोलने से साँस की ऊष्मा चलती हैं। ये संघर्षी व्यंजन हैं।

‘श’ के उच्चारण में जिह्ना तालु को स्पर्श करती है और हवा दोनों बगलों में स्पर्श करती हुई निकल जाती है, पर ‘ष’ के उच्चारण में जिह्ना मूर्द्धा को स्पर्श करती हैं। अतएव ‘श’ तालव्य वर्ण है और ‘ष’ मूर्धन्य वर्ण। हिन्दी में अब ‘ष’ का उच्चारण ‘श’ के समान होता हैं। ‘ष’ वर्ण उच्चारण में नहीं है, पर लेखन में हैं। सामान्य रूप से ‘ष’ का प्रयोग तत्सम शब्दों में होता है; जैसे- अनुष्ठान, विषाद, निष्ठा, विषम, कषाय इत्यादि।

‘श’ और ‘स’ के उच्चारण में भेद स्पष्ट हैं। जहाँ ‘श’ के उच्चारण में जिह्ना तालु को स्पर्श करती है, वहाँ ‘स’ के उच्चारण में जिह्ना दाँत को स्पर्श करती है। ‘श’ वर्ण सामान्यतया संस्कृत, फारसी, अरबी और अँगरेजी के शब्दों में पाया जाता है; जैसे- पशु, अंश, शराब, शीशा, लाश, स्टेशन, कमीशन इत्यादि। हिन्दी की बोलियों में श, ष का स्थान ‘स’ ने ले लिया है। ‘श’ और ‘स’ के अशुद्ध उच्चारण से गलत शब्द बन जाते है और उनका अर्थ ही बदल जाता है। अर्थ और उच्चारण के अन्तर को दिखलानेवाले कुछ उदाहरण इस प्रकार है-

अंश (भाग)- अंस (कन्धा) । शकल (खण्ड)- सकल (सारा) । शर (बाण)- सर (तालाब) । शंकर (महादेव)- संकर (मिश्रित) । श्र्व (कुत्ता)- स्व (अपना) । शान्त (धैर्ययुक्त)- सान्त (अन्तसहित)।

‘ड’ और ‘ढ’ का उच्चारण-

इसका उच्चारण शब्द के आरम्भ में, द्वित्व में और हस्व स्वर के बाद अनुनासिक व्यंजन के संयोग से होता है।

जैसे- डाका, डमरू, ढाका, ढकना, ढोल- शब्द के आरम्भ में। 
गड्ढा, खड्ढा- द्वित्व में। 
डंड, पिंड, चंडू, मंडप- हस्व स्वर के पश्रात, अनुनासिक व्यंजन के संयोग पर।

conclusion

तो दोस्तों Hindi को शुद्ध रूप से पढ़ने लिखने तथा बोलने के लिए Hindi varnamala का अध्ययन करना बहुत जरूरी हैँ। इसलिए इस पोस्ट में हमने हिंदी वर्णमाला को तथा इसके प्रकार जैसे स्वर और व्यंजन को विस्तार पूर्वक समझाया हैँ यह हमारी हिंदी केटेगरी कि पोस्ट हैँ अगर आपको शिक्षा से सम्बंधित और जानकारी चाहिए तो आप shikshaportal पर क्लिक करके पढ़ सकते हो। उम्मीद हैँ आपको यह पोस्ट पसंद आयी हो इसलिए पोस्ट को ज्यादा से ज्यादा सिखने wale लोगो तक पहुंचाए।

 

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