Hindi Varnamala – किसी भी भाषा कि शुद्धता व नियम को व्याकरण के माध्यम से समझा जाता हैँ इसी प्रकार हिंदी भाषा को शुद्ध लिखने व बोलने संबंधि नियम भी हिंदी व्याकरण में सम्मिलित होते हैँ इसलिए इसका अध्ययन किया जाता हैँ।
हिंदी वर्णमाला ( Hindi Varnamala ) जिसे अंग्रेजी में Alphabet कहते हैँ हिंदी व्याकरण का महत्वपूर्ण विषय हैँ इसलिए हिंदी भाषा के नियम को समझने के लिए Hindi Varnamala का अध्ययन किया जाता हैँ।
अगर आप भी सीखना चाहते हो वर्णमाला, अक्षरमाला Alphabet in Hindi, अक्षर, स्वर और व्यंजन तो आप को लेख पूरा पढना चाहिए।
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हिंदी वर्णमाला – Hindi Varnamala
वर्णमाला को समझने के लिए सबसे पहले हम वर्ण को समझेंगे की वर्ण क्या हैँ?
वर्ण ( Varn ) – अर्थ व परिभाषा
वह मूल ध्वनि जिसका खण्ड ना हो या जिसके खंड या टुकड़े नहीं किये जा उसे वर्ण कहते हैँ, जैसे- अ, ई, उ, व्, च्, क्, ख् इत्यादि।
अन्य शब्दों में – ध्वनि का लिखित रूप वर्ण कहलाता हैँ।
वर्ण को ध्वनि या लिपि चिन्ह भी कहते हैँ।
वर्ण भाषा की सबसे छोटी इकाई है, क्योंकि इसके और खंड या टुकड़े नहीं किये जा सकते।
उदाहरण के लिए – ‘बाज’ और ‘राज’ में चार-चार मूल ध्वनियाँ हैं, जिनके खंड नहीं किये जा सकते-
ब + आ + ज + अ = बाज
र + आ + ज + अ = आज
इन्हीं अखंड मूल ध्वनियों को वर्ण कहते हैं। हर वर्ण की अपनी लिपि होती है। लिपि को वर्ण-संकेत भी कहते हैं। हिन्दी में 52 वर्ण हैं।
वर्णमाला ( Varnamala ) – अर्थ व परिभाषा
वर्णमाला ( Varnamala ) Alphabet in Hindi
वर्णों के व्यवस्थित क्रम को वर्णमाला कहते हैं।
दूसरे शब्दों में – किसी भाषा के समस्त वर्णो के समूह को वर्णमाला कहते हैै।
सामान्य शब्दों में – लिपि चिन्ह के व्यवस्थित क्रम को वर्णमाला कहते हैं।
अन्य शब्दों में – ध्वनि के व्यवस्थित क्रम को वर्णमाला कहते हैं।
हर भाषा की अपनी अपनी वर्णमाला होती है, जैसे –
हिंदी- अ, आ, क, ख, ग….. = देवनागरी लिपि
English – A, B, C, D, E…. = Roman lipi
हिंदी में उच्चारण के आधार पर 45 वर्ण होते हैं। जिसमे 10 स्वर और 35 व्यंजन होते हैं और लेखन के आधार पर 52 वर्ण होते हैं जिसमे 13 स्वर , 35 व्यंजन तथा 4 संयुक्त व्यंजन होते हैं।
हिंदी वर्णमाला (Hindi Varnamala) में मात्रा के आधार पर स्वरों की संख्या 10 है।
वर्णमाला के भेद – Varnamala ke Bhed
हिंदी भाषा में वर्ण दो प्रकार के होते है-
- स्वर ( vowel )
- व्यंजन ( Consonant )
1. स्वर ( Swar ) : Vowels in Hindi
अर्थ, परिभाषा एवं प्रकार
वे वर्ण या ध्वनि जिनके उच्चारण में किसी अन्य वर्ण या ध्वनि की सहायता की आवश्यकता नहीं होती, स्वर कहलाता है।
दूसरे शब्दों में – वे सभी वर्ण या ध्वनि जिनको स्वतंत्र रूप से बोला जाता हैँ, स्वर कहलाते हैँ।
इसके उच्चारण में कंठ, तालु का उपयोग होता है, जीभ, होठ का नहीं।
हिंदी वर्णमाला में 16 स्वर है
जैसे- अ आ इ ई उ ऊ ए ऐ ओ औ अं अः ऋ ॠ ऌ ॡ।
नोट : – ऋ और लृ एवं लृ दोनों का प्रयोग अब नहीं होता है।
स्वर के भेद | Swar ke Bhed
स्वर के दो भेद होते है-
(i) मूल स्वर
(ii) संयुक्त स्वर
(i) मूल स्वर:- अ, आ, इ, ई, उ, ऊ, ए, ओ
(ii) संयुक्त स्वर:- ऐ (अ +ए) और औ (अ +ओ)
मूल स्वर के भेद
मूल स्वर के तीन भेद होते है –
(i) ह्स्व स्वर
(ii) दीर्घ स्वर
(iii)प्लुत स्वर
(i) ह्रस्व स्वर : जिन स्वरों के उच्चारण अन्य स्वरों की तुलना में कम समय लगता है उन्हें ह्स्व स्वर कहते है।
ह्स्व स्वर चार होते है – अ आ उ ऋ।
‘ऋ’ की मात्रा (ृ) के रूप में लगाई जाती है तथा उच्चारण ‘रि’ की तरह होता है।
(ii) दीर्घ स्वर : वे स्वर जिनके उच्चारण में ह्रस्व स्वर से दोगुना समय लगता है, वे दीर्घ स्वर कहलाते हैं।
सरल शब्दों में- जिन स्वरों के उच्चारण में अधिक समय लगता है उन्हें दीर्घ स्वर कहते है।
दीर्घ स्वर सात होते है -आ, ई, ऊ, ए, ऐ, ओ, औ।
दीर्घ स्वर दो शब्दों के योग से बनते है।
जैसे- आ =(अ +अ )
ई =(इ +इ )
ऊ =(उ +उ )
ए =(अ +इ )
ऐ =(अ +ए )
ओ =(अ +उ )
औ =(अ +ओ )
(iii) प्लुत स्वर : वे स्वर जिनके उच्चारण में दीर्घ स्वर से भी अधिक समय यानी तीन मात्राओं का समय लगता है, प्लुत स्वर कहलाते हैं।
सरल शब्दों में- जिस स्वर के उच्चारण में तिगुना समय लगे, उसे ‘प्लुत’ कहते हैं।
इसका चिह्न (ऽ) है। इसका प्रयोग अकसर पुकारते समय किया जाता है। जैसे- सुनोऽऽ, शाऽऽम, पोऽऽम्।
हिन्दी में साधारणतः प्लुत का प्रयोग नहीं होता। वैदिक भाषा में प्लुत स्वर का प्रयोग अधिक हुआ है। इसे ‘त्रिमात्रिक’ स्वर भी कहते हैं।
अं, अः अयोगवाह कहलाते हैं। वर्णमाला में इनका स्थान स्वरों के बाद और व्यंजनों से पहले होता है। अं को अनुस्वार तथा अः को विसर्ग कहा जाता है।
अनुनासिक, निरनुनासिक, अनुस्वार और विसर्ग
अनुनासिक, निरनुनासिक, अनुस्वार और विसर्ग- हिन्दी में स्वरों का उच्चारण अनुनासिक और निरनुनासिक होता हैं। अनुस्वार और विर्सग व्यंजन हैं, जो स्वर के बाद, स्वर से स्वतंत्र आते हैं। इनके संकेतचिह्न इस प्रकार हैं।
अनुनासिक (ँ)-
ऐसे स्वरों का उच्चारण नाक और मुँह से होता है और उच्चारण में लघुता रहती है। जैसे- गाँव, दाँत, आँगन, साँचा इत्यादि।
अनुस्वार ( ं)-
यह स्वर के बाद आनेवाला व्यंजन है, जिसकी ध्वनि नाक से निकलती है। जैसे- अंगूर, अंगद, कंकन।
निरनुनासिक-
केवल मुँह से बोले जानेवाला सस्वर वर्णों को निरनुनासिक कहते हैं। जैसे- इधर, उधर, आप, अपना, घर इत्यादि।
विसर्ग( ः)-
अनुस्वार की तरह विसर्ग भी स्वर के बाद आता है। यह व्यंजन है और इसका उच्चारण ‘ह’ की तरह होता है।
संस्कृत में इसका काफी व्यवहार है। हिन्दी में अब इसका अभाव होता जा रहा है; किन्तु तत्सम शब्दों के प्रयोग में इसका आज भी उपयोग होता है। जैसे- मनःकामना, पयःपान, अतः, स्वतः, दुःख इत्यादि।
2. व्यंजन ( Vyanjan ) : Consonant in Hindi
अर्थ,परिभाषा एवं प्रकार
वे सभी वर्ण जिनको बोलने के लिए स्वर की सहायता लेनी पड़ती है उन्हें व्यंजन कहते है।
दूसरे शब्दो में- व्यंजन उन वर्णों को कहते हैं, जिनके उच्चारण में स्वर वर्णों की सहायता ली जाती है।
अन्य शब्दों में - वे सभी वर्ण जिन्हे स्वतंत्र रूप से नहीं बोल सकते व्यंजन कहलाते हैँ।
जैसे- क, ख, ग, च, छ, त, थ, द, भ, म इत्यादि।
‘क’ से विसर्ग ( : ) तक सभी वर्ण व्यंजन हैं। प्रत्येक व्यंजन के उच्चारण में ‘अ’ की ध्वनि छिपी रहती है। ‘अ’ के बिना व्यंजन का उच्चारण सम्भव नहीं।
जैसे- ख्+अ=ख, प्+अ =प। व्यंजन वह ध्वनि है, जिसके उच्चारण में भीतर से आती हुई वायु मुख में कहीं-न-कहीं, किसी-न-किसी रूप में, बाधित होती है। स्वरवर्ण स्वतंत्र और व्यंजनवर्ण स्वर पर आश्रित है। हिन्दी में व्यंजनवर्णो की संख्या 33 है।
व्यंजनों के प्रकार – Vyanjan ke Bhed
व्यंजनों तीन प्रकार के होते है-
(1)स्पर्श व्यंजन
(2)अन्तःस्थ व्यंजन
(3)उष्म व्यंजन
(1) स्पर्श व्यंजन
स्पर्श का अर्थ होता है छूना, जिन व्यंजनों का उच्चारण करते समय जीभ मुँह के किसी भाग जैसे- कण्ठ, तालु, मूर्धा, दाँत, अथवा होठ का स्पर्श करती है, उन्हें स्पर्श व्यंजन कहते है।
दूसरे शब्दो में- ये कण्ठ, तालु, मूर्द्धा, दन्त और ओष्ठ स्थानों के स्पर्श से बोले जाते हैं। इसी से इन्हें स्पर्श व्यंजन कहते हैं। इन्हें हम 'वर्गीय व्यंजन' भी कहते है; क्योंकि ये उच्चारण-स्थान की अलग-अलग एकता लिए हुए वर्गों में विभक्त हैं।
ये 25 व्यंजन होते है
क वर्ग | क ख ग घ ङ ये कण्ठ का स्पर्श करते है। |
च वर्ग | च छ ज झ ञ ये तालु का स्पर्श करते है। |
ट वर्ग | ट ठ ड ढ ण (ड़, ढ़) ये मूर्धा का स्पर्शकरते है। |
त वर्ग | त थ द ध न ये दाँतो का स्पर्श करते है। |
प वर्ग | प फ ब भ म ये होठों का स्पर्श करते है। |
(2) अन्तःस्थ व्यंजन :
‘अन्तः’ का अर्थ होता है- ‘भीतर’। उच्चारण के समय जो व्यंजन मुँह के भीतर ही रहे जाते हैँ उन्हें अन्तःस्थ व्यंजन कहते है।
अन्तः = मध्य/बीच, स्थ = स्थित। इन व्यंजनों का उच्चारण स्वर तथा व्यंजन के मध्य का-सा होता है। उच्चारण के समय जिह्वा मुख के किसी भाग को स्पर्श नहीं करती।
ये व्यंजन चार होते है- य, र, ल, व। इनका उच्चारण जीभ, तालु, दाँत और ओठों के परस्पर सटाने से होता है, किन्तु कहीं भी पूर्ण स्पर्श नहीं होता। अतः ये चारों अन्तःस्थ व्यंजन ‘अर्द्धस्वर’ कहलाते हैं।
(3) उष्म व्यंजन :
उष्म का अर्थ होता है- गर्म। जिन वर्णो के उच्चारण के समय हवा मुँह के विभिन्न भागों से टकराये और साँस में गर्मी पैदा कर दे, उन्हें उष्म व्यंजन कहते है।
ऊष्म = गर्म। इन व्यंजनों के उच्चारण के समय वायु मुख से रगड़ खाकर ऊष्मा पैदा करती है यानी उच्चारण के समय मुख से गर्म हवा निकलती है।
उष्म व्यंजनों का उच्चारण एक प्रकार की रगड़ या घर्षण से उत्पत्र उष्म वायु से होता हैं।
ये भी चार व्यंजन होते है- श, ष, स, ह।
उच्चारण स्थान के आधार पर व्यंजनों का वर्गीकरण
व्यंजनों का उच्चारण करते समय हवा मुख के अलग-अलग भागों से टकराती है।
उच्चारण के अंगों के आधार पर व्यंजनों का वर्गीकरण इस प्रकार है :
(i) कंठ्य (गले से) – क, ख, ग, घ, ङ
(ii) तालव्य (कठोर तालु से) – च, छ, ज, झ, ञ, य, श
(iii) मूर्धन्य (कठोर तालु के अगले भाग से) – ट, ठ, ड, ढ, ण, ड़, ढ़, ष
(iv) दंत्य (दाँतों से) – त, थ, द, ध, न
(v) वर्त्सय (दाँतों के मूल से) – स, ज, र, ल
(vi) ओष्ठय (दोनों होंठों से) – प, फ, ब, भ, म
(vii) दंतौष्ठय (निचले होंठ व ऊपरी दाँतों से) – व, फ
(viii) स्वर यंत्र से – ह
श्वास (प्राण-वायु) की मात्रा के आधार पर वर्ण-भेद
उच्चारण में वायुप्रक्षेप की दृष्टि से व्यंजनों के दो भेद हैं-
(1) अल्पप्राण (2) महाप्राण
(1) अल्पप्राण :
जिनके उच्चारण में श्वास पुरव से अल्प मात्रा में निकले और जिनमें ‘हकार’-जैसी ध्वनि नहीं होती, उन्हें अल्पप्राण कहते हैं।
सरल शब्दों में- जिन वर्णों के उच्चारण में वायु की मात्रा कम होती है, वे अल्पप्राण कहलाते हैं।
प्रत्येक वर्ग का पहला, तीसरा और पाँचवाँ वर्ण अल्पप्राण व्यंजन हैं।
जैसे- क, ग, ङ; ज, ञ; ट, ड, ण; त, द, न; प, ब, म,।
अन्तःस्थ (य, र, ल, व ) भी अल्पप्राण ही हैं।
(2) महाप्राण:
जिनके उच्चारण में ‘हकार’-जैसी ध्वनि विशेषरूप से रहती है और श्वास अधिक मात्रा में निकलती हैं। उन्हें महाप्राण कहते हैं।
सरल शब्दों में – जिन वर्णों के उच्चारण में वायु की मात्रा अधिक होती है, वे महाप्राण कहलाते हैं।
प्रत्येक वर्ग का दूसरा और चौथा वर्ण तथा समस्त ऊष्म वर्ण महाप्राण हैं।
जैसे- ख, घ; छ, झ; ठ, ढ; थ, ध; फ, भ और श, ष, स, ह।
संक्षेप में अल्पप्राण वर्णों की अपेक्षा महाप्राणों में प्राणवायु का उपयोग अधिक श्रमपूर्वक करना पड़ता हैं।
संयुक्त व्यंजन : जो व्यंजन दो या दो से अधिक व्यंजनों के मेल से बनते हैं, वे संयुक्त व्यंजन कहलाते हैं।
ये इस प्रकार हैँ –
क्ष = क् + ष + अ = क्ष (रक्षक, भक्षक, क्षोभ, क्षय)
त्र = त् + र् + अ = त्र (पत्रिका, त्राण, सर्वत्र, त्रिकोण)
ज्ञ = ज् + ञ + अ = ज्ञ (सर्वज्ञ, ज्ञाता, विज्ञान, विज्ञापन)
श्र = श् + र् + अ = श्र (श्रीमती, श्रम, परिश्रम, श्रवण)
संयुक्त व्यंजन में पहला व्यंजन स्वर रहित तथा दूसरा व्यंजन स्वर सहित होता है।
द्वित्व व्यंजन : जब एक व्यंजन का अपने समरूप व्यंजन से मेल होता है, तब वह द्वित्व व्यंजन कहलाता हैं।
जैसे- क् + क = थक्का
च् + च = सच्चा
म् + म = चम्मच
त् + त = सत्ता
द्वित्व व्यंजन में भी पहला व्यंजन स्वर रहित तथा दूसरा व्यंजन स्वर सहित होता है।
संयुक्ताक्षर : जब एक स्वर रहित व्यंजन अन्य स्वर सहित व्यंजन से मिलता है, तब वह संयुक्ताक्षर कहलाता हैं।
जैसे- क् + त = क्त = उपयुक्त
स् + थ = स्थ = स्थान
स् + व = स्व = स्वाद
द् + ध = द्ध = शुद्ध
यहाँ दो अलग-अलग व्यंजन मिलकर कोई नया व्यंजन नहीं बनाते।
वर्णों की मात्राएँ – अर्थ व प्रकार
व्यंजन वर्णों के उच्चारण में जिन स्वरमूलक चिह्नों का व्यवहार होता है, उन्हें ‘मात्राएँ’ कहते हैं।
दूसरे शब्दो में- स्वरों के व्यंजन में मिलने के इन रूपों को भी ‘मात्रा’ कहते हैं, क्योंकि मात्राएँ तो स्वरों की होती हैं।
ये मात्राएँ दस है; जैसे- ा े, ै ो ू इत्यादि। ये मात्राएँ केवल व्यंजनों में लगती हैं; जैसे- का, कि, की, कु, कू, कृ, के, कै, को, कौ इत्यादि।
स्वर वर्णों की ही हस्व-दीर्घ (छंद में लघु-गुरु) मात्राएँ होती हैं, जो व्यंजनों में लगने पर उनकी मात्राएँ हो जाती हैं। हाँ, व्यंजनों में लगने पर स्वर उपयुक्त दस रूपों के हो जाते हैं।
घोष और अघोष व्यंजन
(1) घोष व्यंजन:
नाद की दृष्टि से जिन व्यंजनवर्णों के उच्चारण में स्वरतन्त्रियाँ झंकृत होती हैं, वे घोष कहलाते हैं।
(2)अघोष व्यंजन:
नाद की दृष्टि से जिन व्यंजनवर्णों के उच्चारण में स्वरतन्त्रियाँ झंकृत नहीं होती हैं, वे अघोष कहलाते हैं।
‘घोष’ में केवल नाद का उपयोग होता हैं, जबकि ‘अघोष’ में केवल श्र्वास का। उदाहरण के लिए-
अघोष वर्ण- क, ख, च, छ, ट, ठ, त, थ, प, फ, श, ष, स।
घोष वर्ण- प्रत्येक वर्ग का तीसरा, चौथा और पाँचवाँ वर्ण, सारे स्वरवर्ण, य, र, ल, व और ह।
हल् – अर्थ व उदाहरण
हल्- व्यंजनों के नीचे जब एक तिरछी रेखा लगाई जाय, तब उसे हल् कहते हैं।
‘हल्’ लगाने का अर्थ है कि व्यंजन में स्वरवर्ण का बिलकुल अभाव है या व्यंजन आधा हैं।
जैसे- ‘क’ व्यंजनवर्ण हैं, इसमें ‘अ’ स्वरवर्ण की ध्वनि छिपी हैं।
यदि हम इस ध्वनि को बिलकुल अलग कर देना चाहें, तो ‘क’ में हलन्त या हल् चिह्न लगाना आवश्यक होगा। ऐसी स्थिति में इसके रूप इस प्रकार होंगे- क्, ख्, ग्, च् ।
हिन्दी के नये वर्ण:
हिन्दी वर्णमाला में पाँच नये व्यंजन- क्ष, त्र, ज्ञ, ड़ और ढ़ – जोड़े गये हैं। किन्तु, इनमें प्रथम तीन स्वतंत्र न होकर संयुक्त व्यंजन हैं, जिनका खण्ड किया जा सकता हैं। जैसे- क्+ष =क्ष; त्+र=त्र; ज्+ञ=ज्ञ।
अतः क्ष, त्र और ज्ञ की गिनती स्वतंत्र वर्णों में नहीं होती। ड और ढ के नीचे बिन्दु लगाकर दो नये अक्षर ड़ और ढ़ बनाये गये हैं। ये संयुक्त व्यंजन हैं।
यहाँ ड़-ढ़ में ‘र’ की ध्वनि मिली हैं। इनका उच्चारण साधारणतया मूर्द्धा से होता हैं। किन्तु कभी-कभी जीभ का अगला भाग उलटकर मूर्द्धा में लगाने से भी वे उच्चरित होते हैं।
हिन्दी में अरबी-फारसी की ध्वनियों को भी अपनाने की चेष्टा हैं। व्यंजनों के नीचे बिन्दु लगाकर इन नयी विदेशी ध्वनियों को बनाये रखने की चेष्टा की गयी हैं।
जैसे- कलम, खैर, जरूरत। किन्तु हिन्दी के विद्वानों (पं० किशोरीदास वाजपेयी, पराड़करजी, टण्डनजी), काशी नागरी प्रचारिणी सभा और हिन्दी साहित्य सम्मेलन को यह स्वीकार नहीं हैं।
इनका कहना है कि फारसी-अरबी से आये शब्दों के नीचे बिन्दी लगाये बिना इन शब्दों को अपनी भाषा की प्रकृति के अनुरूप लिखा जाना चाहिए। बँगला और मराठी में भी ऐसा ही होता हैं।
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Final words as Conclusion – निष्कर्ष
हिंदी व्याकरण हिंदी भाषा को शुद्ध रूप में लिखने व बोलने संबंधित नियम प्रदान करती हैँ इसलिए इसका अध्ययन करना बहुत जरुरी होता हैँ, इसमें कही विषय सम्मिलित हैँ जिनका क्रमबद्ध तरीके से अध्ययन करना चाहिए जिसमे भाषा,हिंदी वर्णमाला ( Hindi Varnamala ), संज्ञा, सर्वनाम आदि आते हैँ।
इस लेख में हमने हिंदी वर्णमाला का अध्ययन किया मै उम्मीद करता हूँ आपको यह जरूर पसंद आया हो इसलिए इसे सब लोगो तक शेयर जरूर करे।
HINDI VYAKARAN – हिन्दी व्याकरण
Bhasha – भाषा | Varnamala |
Sarvanam | Kriya – क्रिया |
Visheshan | Samas – समास |
Paryayvachi shabd | Vilom shabd |
Karak – कारक | Nibandh – निबंध |
FAQ – Hindi Varnamala
हिंदी वर्णमाला के 52 अक्षर:
स्वर :- अ, आ, इ, ई, उ, ऊ, ऋ, ए, ऐ, ओ, औ,(ँ), (:)
व्यंजन :- क ख ग घ ङ, च छ ज झ ञ, ट ठ ड ढ ण, त थ द ध न, प फ ब भ म, य र ल व, श ष स ह, क्ष, त्र, ज्ञ, श्र, ड़, ढ़, है।
13 स्वर – अ, आ, इ, ई, उ, ऊ, ए, ऐ, ओ, औ, ऋ, (ँ) (अनुस्वरा), अ : (विसर्ग) = 10 +3 = 13.
वर्णों के वावस्थित समूह को वर्णमाला कहते है. जैसे स्वर, अयोगवाह, वयंजन, संयुक्त वयंजन, अन्य. हिंदी वर्णमाला में कुल ५२ वर्ण है. जिनको दो भागो में बाटा गया है .
देवनागरी में 48 अक्षर हैं : 34 व्यंजन (साथ ही ओमन, 1973 के अनुसार कुछ अतिरिक्त उधार व्यंजन), 10 स्वर और 4 डिप्थॉन्ग। एक व्यंजन अक्षर का कभी भी शुद्ध व्यंजन मूल्य नहीं होता है, लेकिन यह इंगित करता है कि व्यंजन के बाद एक छोटा / ए /, बोली जाने वाली भाषा में एक बहुत ही लगातार स्वर है।
स्वर के चिन्ह को वर्ण कहते हैं।
A, E, I, O, U, Y, W अंग्रेजी के 7 स्वर हैं।
हिंदी में स्वरों की संख्या 11 होती है जो इस प्रकार हैं – अ, आ, इ, ई, उ, ऊ, ए, ऐ, ओ, औ, ऋ । भारत सरकार द्वारा स्वीकृत हिंदी के मानक वर्णमाला में स्वरों की संख्या ग्यारह है जिसमें ॠ को भी शामिल किया गया है। हिंदी में ॠ को अर्ध स्वर माना जाता है।
अ देवनागरी लिपि का पहला वर्ण तथा संस्कृत, हिंदी , मराठी, नेपाली आदि भाषाओं की वर्णमाला का पहला अक्षर एवं ध्वनि है। यह एक स्वर है।
हिंदी भाषा की सबसे छोटी इकाई ध्वनि होती है, इसी ध्वनि को वर्ण कहते है, जिसके खंड या टुकड़े नहीं किये जा सकते।